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Dear Nature...

Dear Nature

ये एक अपोलोजी लेटर है...

में जानता हूँ मैंने इसे लिखने में उतनी ही देर कर दी है जितना आपको बचाने में...

मैंने सुना है एक चिड़ियाँ जब घर लौटी तो कटी हुई डालियों के बीच अपने घोंसले को बिखरा हुआ पाके रो बैठी
ये उसका तीसरा घर था ना
वैसे हमे इस बात से ज़्यादा फर्क नहीं पड़ा है, आखिर वो इन्सान नई है ना...

कहते है अगर कोई जुर्म करते वक़्त अपनी छवि देख लो तो गिल्ट के मारे वो कर नहीं पाओगे,
नदियाँ अब साफ रही नही तो उसमें खुद की छवि दिखती भी नहीं,
इसलिए हमने खुद को अपराधी मानना भी छोड़ दिया है...

यह बीज बोई मिट्टी पे कॉन्क्रेट के रास्ते बनाके ना जाने हम कहाँ जा रहे है,
शायद अपने अंत की और जिसे हम प्रगति की शुरुआत समज बैठे है,

ऐसा नहीं है कि हमने कोशिश नहीं कि,
हमने आवाज़ बहोत उठायी, फिर
जवाब में ये हल सुनाया गया के जितने पेड़ कट रहे है उतने ही पौधे लगाए भी जाएंगे,
ये सुनके ज़्यादातर लोग मान गए

वो समझे ही नही के पौधों को पेड़ बन ने में  जितना वक़्त लगेगा शायद उतना ही वक़्त बाकी है हमारे पास...

ज़रसल हमे कुछ और ज़मीन चाहिए,
अपने घरों के लिए जिसमे बहोत सारे लकड़ो के दरवाजे हो, जो हमे अपनो की ज़िंदगी से अलग कर चुके हो,

हमे कुछ और ज़मीन चाहिए,
मंदिर और मस्जिदों के लिए, जो बनते खून से सींचि हुई मिट्टी पर, ना जाने कौन सा भगवान या खुदा वहां पर खुश होनेवाला है,

हमे कुछ और ज़मीन चाहिए,
औरतों के लिए सुरक्षित गलियां बनाने के लिए क्यूं की इंसाफ मांगने से आसान तो सड़के बनाना है,

हमे कुछ और ज़मीन चाहिए,
अपने कब्रस्तान के लिए जिसकी वजह से हम तुम्हे शमशान की तरह जलाये जा रहे है,

हमे बस कुछ और ज़मीन ही चाहिए......

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